स्त्री हूं मैं, जिम्मेदारी के बोझ तले दबी हूं,
उड़ना भी चाहूं, पर क्या करू अब थकी हूं।
आखिर यह सब करके क्या पाया,
जिसको अपना माना उसी ने ठुकराया
सब खोकर मैंने आज ये जाना
जिस के लिए तुम मरते हो वो ही है बेगाना
बार -बार अपने दिल को समझाती हूं,
न कर समझोता फिर भी न जाने क्यों उसी ओर मुड़ जाती हूं
फिर पछताती हूं अपने दिल को बहलाती हूं,
सौदागारो की दुनिया में खुद को बचाती हूं।
फिर नई किरण की तरह सपने भी मन में आते हैं
अनजाने ही दिलो जान से पूरा करने में जुट जाते है
जैसे ही किस्मत का दरवाजा खुलने लगता है,
उसी समय न जाने कौन सामने खड़ा सा लगता है।
वो कोई और नही अपनी जिम्मेदारी ही होती है,
मन करता है पैरो तले रौंद के आगे बढ जाएं
पर क्या करे?
स्त्री हुं मैं, जिम्मेदारी के बोझ तले दबी हूं
उड़ना भी चाहूं, पर क्या करू अब थकी हूं।।